श्याम भक्त नरसी मेहता - Shri Narsi Ji
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Read Here - भक्ति कथायें ।।
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भारत भूमि अनेक संतों-महात्माओं की जननी रही है । भारत के हर प्रांतों में अनेका नेक संतों ने जन्म लिया है । ऐसे संतों में एक संत नरसी मेहता का जन्म गुजरात प्रांत में जूनागढ़ नामक नगर में बड़ नगरा जाति के नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ ।
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उनके पिता का नाम कृष्णदास और माता का नाम दया कुंवर था। पत्नी माणेक बाई थीं । बचपन में ही नरसी के अपने मा-बाप स्वर्ग वासी हो गए थे । वह अपने भाई-भावज के आश्रय में रहते थे । वह भाभी के प्रतिकूल स्वभाव के कारण अनमने रहते थे ।
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एक दिन उद्विग्न मन वाले नरसी भाभी के घर का त्याग करके वन की ओर चले गए । रास्ते में एक अपूज शिवालय के पास पहुंच गए । पूजा-ध्यान में कई रात और दिन बीतते चले गए । सात दिन के उपवास के बाद शंकर भगवान ने प्रसन्न होकर दर्शन दिए ।
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भगवान शकर ने उनको कुछ वरदान मांगने को कहा । नरसी ने सुख-सम्पत्ति न मांग कर भगवान विष्णु के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की । यह सुनकर शंकर अधिकाधिक प्रसन्न हुए । स्वयं महादेव जी हाथ पकड़कर उनको बैकुंठ में ले गए ।
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वहां कृष्ण की रास लीला देखकर उनका दिल परिपूर्ण हो गया । शंकर जी ने लोकाचार छोड्कर उनको भगवद्भक्ति में लीन होने की प्रेरणा दी क्योंकि भक्ति से भवसागर पार करना सरल है । पलभर में स्वप्नवत यह सारा देवदृश्य अदृश्य हो गया । शंकर भगवान भी अंतर्धान हो गए ।
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नरसी के रोम-रोम में भक्ति का रोमांच फैल गया । मुख से भक्तिपद झरने लगे । अब नरसी कृष्णोपासक बन गए । घर लौटकर भाभी के चरणों में गिरकर उन्होंने भाभी का उपकार माना कि उन्हीं के कारण उनको भगवान का साक्षात्कार हुआ ।
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इस तरह जो इधर-उधर बे-रोजगार नरसी थोड़े दिन पहले भटकते थे वो रातों रात भक्ति के रंग में रग चुके थे। उनकी वाणी में सरस्वती का पावन प्रवाह बहने लगा । अब भक्ति ही उनका कार्य बन गया ।
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घर में पत्नी बड़ी साध्वी थी । इससे नरसी का भक्तिछंद बिना रोक-टोक समृद्ध बनता गया । अपने आंगन में तुलसी के पौधों को पालने लगे साधु-वैरागी की जमात इकट्ठा करते रहते। करताल मृदग और शंख जैसे भक्ति के साज लिए हुए रात-दिन अपने आगन में भजन-कीर्तन की धुन बजाते रहते।
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आजीविका का कोई व्यवसाय न होने पर भी ईश्वर भरोसे जीवन नैया भवसागर में आगे बढ़ाते रहे । ईश्वर में अटट श्रद्धा ही उनकी भक्ति का मूल मंत्र है ।
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वह दो संतानों के पिता बने । पुत्र सामला दास और पुत्री कुंवर बाई । बच्चों का विवाह अच्छे घराने में किया । किंतु कर्म वश थोड़े ही दिनों में पुत्र ओर पत्नी स्वर्गवासी हो गए ।
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गृह-संसार लुट गया फिर भी नरसी उसको भक्ति के लिए उपयुक्त समझकर थोड़े ही दिनों में शोक रहित बन गए । उन्होंने यही मान लिया अच्छा हुआ यह संसार टूट गया जिससे सुख से श्री गोपाल की भक्ति हो सकेगी।
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नरसी के जीवन में अनेक चमत्कार युक्त बातें जुड़ी हैं । एक बार नागरिकों ने नरसी की बेइज्जती करने के लिए कुछ तीर्थ यात्रियों को नरसी के घर भेजा और द्वारिका के किसी सेठ के ऊपर हुंडी (चैक) लिखने के लिए कहा ।
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नरसी ने वहां कोई पहचान वाला न होने पर भी शामलशा सेठ के नाम पर चिट्ठी लिखी । स्वय भगवान ने शामलशा के रूप में आकर हुंडी को स्वीकार किया और नरसी की बात रखी ।
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पुत्री कुंवर बाई के यहां एक मांगलिक प्रसंग था । नरसी के पास फूटी कौड़ी भी नहीं थी । लेकिन भगवान पर भरोसा रखकर साधु-संतों के साथ मृदग शख और करताल लिए खाली हाथ वह पुत्री के ससुराल में जा पहुंचे ।
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नरसी को ऐसे वेश में देखकर कुवर बाई के ससुराल वाले उन पर हंसने लगे । उन्होंने नरसी की भक्ति का मजाक करते हुए नहाने के लिए गरम पानी दिया और कहा कि अगर तुम्हारी भक्ति सच्ची होती तो आसमान से पानी बरसता ।
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नरसी ने हाथ में करताल लेकर मल्लार राग छेड़ दिया । पल भर में आकाश में काले बादल उमड़ने लगे और मूसलाधार वर्षा हुई । यह देखकर सब दंग रह गए ।
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संत परम्परानुसार नरसी भगत को एक यज्ञ में भोज देना (भात देना) था । उनके पास तो कुछ था नहीं । उन्होंने जगत पालक भगवान श्रीविष्णु का आवाहन किया । थोड़ी देर में भगवान श्रीकृष्ण और महालक्ष्मी स्वयं प्रकट हुए और फिर वह भोज हुआ कि लोग देखते रह गए ।
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तेरी मोहब्बत मे साँवरे एक बात सीखी है,
तेरी भक्ति के बिना ये सारी दुनिया फीकी है।
तेरा दर ढूढते-ढूढते जिदंगी की शाम हो गई
जब तेरा दर देखा मेरे साँवरे तो जिदंगी ही तेरे नाम हो गई ...
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उनके पिता का नाम कृष्णदास और माता का नाम दया कुंवर था। पत्नी माणेक बाई थीं । बचपन में ही नरसी के अपने मा-बाप स्वर्ग वासी हो गए थे । वह अपने भाई-भावज के आश्रय में रहते थे । वह भाभी के प्रतिकूल स्वभाव के कारण अनमने रहते थे ।
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एक दिन उद्विग्न मन वाले नरसी भाभी के घर का त्याग करके वन की ओर चले गए । रास्ते में एक अपूज शिवालय के पास पहुंच गए । पूजा-ध्यान में कई रात और दिन बीतते चले गए । सात दिन के उपवास के बाद शंकर भगवान ने प्रसन्न होकर दर्शन दिए ।
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भगवान शकर ने उनको कुछ वरदान मांगने को कहा । नरसी ने सुख-सम्पत्ति न मांग कर भगवान विष्णु के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की । यह सुनकर शंकर अधिकाधिक प्रसन्न हुए । स्वयं महादेव जी हाथ पकड़कर उनको बैकुंठ में ले गए ।
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वहां कृष्ण की रास लीला देखकर उनका दिल परिपूर्ण हो गया । शंकर जी ने लोकाचार छोड्कर उनको भगवद्भक्ति में लीन होने की प्रेरणा दी क्योंकि भक्ति से भवसागर पार करना सरल है । पलभर में स्वप्नवत यह सारा देवदृश्य अदृश्य हो गया । शंकर भगवान भी अंतर्धान हो गए ।
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नरसी के रोम-रोम में भक्ति का रोमांच फैल गया । मुख से भक्तिपद झरने लगे । अब नरसी कृष्णोपासक बन गए । घर लौटकर भाभी के चरणों में गिरकर उन्होंने भाभी का उपकार माना कि उन्हीं के कारण उनको भगवान का साक्षात्कार हुआ ।
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इस तरह जो इधर-उधर बे-रोजगार नरसी थोड़े दिन पहले भटकते थे वो रातों रात भक्ति के रंग में रग चुके थे। उनकी वाणी में सरस्वती का पावन प्रवाह बहने लगा । अब भक्ति ही उनका कार्य बन गया ।
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घर में पत्नी बड़ी साध्वी थी । इससे नरसी का भक्तिछंद बिना रोक-टोक समृद्ध बनता गया । अपने आंगन में तुलसी के पौधों को पालने लगे साधु-वैरागी की जमात इकट्ठा करते रहते। करताल मृदग और शंख जैसे भक्ति के साज लिए हुए रात-दिन अपने आगन में भजन-कीर्तन की धुन बजाते रहते।
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आजीविका का कोई व्यवसाय न होने पर भी ईश्वर भरोसे जीवन नैया भवसागर में आगे बढ़ाते रहे । ईश्वर में अटट श्रद्धा ही उनकी भक्ति का मूल मंत्र है ।
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वह दो संतानों के पिता बने । पुत्र सामला दास और पुत्री कुंवर बाई । बच्चों का विवाह अच्छे घराने में किया । किंतु कर्म वश थोड़े ही दिनों में पुत्र ओर पत्नी स्वर्गवासी हो गए ।
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गृह-संसार लुट गया फिर भी नरसी उसको भक्ति के लिए उपयुक्त समझकर थोड़े ही दिनों में शोक रहित बन गए । उन्होंने यही मान लिया अच्छा हुआ यह संसार टूट गया जिससे सुख से श्री गोपाल की भक्ति हो सकेगी।
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नरसी के जीवन में अनेक चमत्कार युक्त बातें जुड़ी हैं । एक बार नागरिकों ने नरसी की बेइज्जती करने के लिए कुछ तीर्थ यात्रियों को नरसी के घर भेजा और द्वारिका के किसी सेठ के ऊपर हुंडी (चैक) लिखने के लिए कहा ।
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नरसी ने वहां कोई पहचान वाला न होने पर भी शामलशा सेठ के नाम पर चिट्ठी लिखी । स्वय भगवान ने शामलशा के रूप में आकर हुंडी को स्वीकार किया और नरसी की बात रखी ।
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पुत्री कुंवर बाई के यहां एक मांगलिक प्रसंग था । नरसी के पास फूटी कौड़ी भी नहीं थी । लेकिन भगवान पर भरोसा रखकर साधु-संतों के साथ मृदग शख और करताल लिए खाली हाथ वह पुत्री के ससुराल में जा पहुंचे ।
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नरसी को ऐसे वेश में देखकर कुवर बाई के ससुराल वाले उन पर हंसने लगे । उन्होंने नरसी की भक्ति का मजाक करते हुए नहाने के लिए गरम पानी दिया और कहा कि अगर तुम्हारी भक्ति सच्ची होती तो आसमान से पानी बरसता ।
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नरसी ने हाथ में करताल लेकर मल्लार राग छेड़ दिया । पल भर में आकाश में काले बादल उमड़ने लगे और मूसलाधार वर्षा हुई । यह देखकर सब दंग रह गए ।
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संत परम्परानुसार नरसी भगत को एक यज्ञ में भोज देना (भात देना) था । उनके पास तो कुछ था नहीं । उन्होंने जगत पालक भगवान श्रीविष्णु का आवाहन किया । थोड़ी देर में भगवान श्रीकृष्ण और महालक्ष्मी स्वयं प्रकट हुए और फिर वह भोज हुआ कि लोग देखते रह गए ।
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तेरी मोहब्बत मे साँवरे एक बात सीखी है,
तेरी भक्ति के बिना ये सारी दुनिया फीकी है।
तेरा दर ढूढते-ढूढते जिदंगी की शाम हो गई
जब तेरा दर देखा मेरे साँवरे तो जिदंगी ही तेरे नाम हो गई ...
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