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परमभक्त तुलसीदास - Sant Tulsidas Biography

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Sant Tulsidas Biography


Katha
Sant Tulsidas Biography

Tulsidas Katha

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परमभक्त तुलसीदास - Sant Tulsidas Biography

कहते हैं कि प्रत्येक सफल पुरुष की सफलता के पीछे किसी स्त्री का बहुत योगदान रहता है। 

जिस समय राष्ट्र भारत पर कई प्रकार के सकट गहरा रहे थे हिन्दुत्व खतरे में था चहुं ओर अधार्मिक गतिविधियां पैर फैला रही थीं और किसी को कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था उस समय समस्त हिन्दू समाज किसी ऐसे मार्गदर्शक की प्रतीक्षा में था जो हिन्दुत्व और भारतीय संस्कृति की रक्षा कर सके।

तभी बांदा जिले के राजापुर नामक ग्राम में आत्माराम दुबे नाम के सरयूपारीण ब्राह्मण की पत्नी हुलसी के गर्भ से तुलसी का जन्म हुआ जिन्होंने हिन्दू जाति के भविष्य में एक आशापूर्ण प्रकाश को आलोकित कर दिया। संवत् 1554 (सन् 1497) श्रावण मास की शुक्ल सप्तमी को तुलसीदास का जन्म हुआ।

जन्म से ही नहीं गर्भ से भी तुलसी एक असाधारण, आत्मा थे। जीवनचक्र के नियमानुसार नर तन पाने के लिए जीव को नौ मास तक माता के गर्भ मेंरहना पड़ता है परंतु तुलसी बारह माह तक माता के गर्भ में रहे। यह एक अद्वितीय और अविश्वसनीय घटना थी।

जन्म के समय भी तुलसीदास कम विचित्र कौतुक वाले नहीं थे। नवजात शिशु की भांति वह तनिक भी न रोए। उनका नवजात शरीर पांच वर्ष के बालक के जैसा था। उनके मुंह में पूरे दांत थे। सारा गांव ऐसे बालक के जन्म से अचम्भित था।

जब उनके पिता ने सुना कि उनकी पत्नी के गर्भ से ऐसा बालक जन्मा है तो वह किसी अनिष्ट की आशंका से भयभीत हो उठे। माता हुलसी भी घबरा गईं और तीसरे दिन ही तुलसी को अपनी दासी मुनियां के साथ अन्यत्र भेज दिया।

उधर मुनियां ने बालक का नाम ‘रामबोला’ रख दिया था। कारण भी था। जन्मते ही बालक के मुख से ‘राम’ निकला था। साढ़े पाच वर्ष तक मुनियां रामबोला को अपने बच्चे की तरह पालती रही और अंतत: काल की क्रूर दृष्टि मुनियां पर पड़ गई। रामबोला को अनाथ करके मुनियां अपने मूल से जा मिली।

अब रामबोला पूरी तरह अनाथ हो गए थे और वह इधर-उधर भटकने लगे थे। किसी तरह वह अपना जीवन-यापन कर रहे थे।

भगवान शंकर और माता पार्वती ने जबउज्जल भविष्य को वर्तमान में इस दीन अवस्था में देखा तो भगवान शंकर की आज्ञा से पार्वती जी एक ब्राह्मणी का वेष बनाकर तुलसीदास को नित्यप्रति भोजन देने आने लगीं।

परंतु यह न तो सटीक समाधान था और न अनवरत चल सकता था। तब भगवान भोलेनाथ ने अयोध्या के परमसंत श्री नरहर्यानंद जी को स्वप्न में तुलसीदासजी के बारे में निर्देश दिए।

और श्री नरहर्यानंद जी रामबोला को ढूंढकर उन्हें अपने साथ अयोध्या ले गए और संवत् 1561 (सन् 1504) माघ मास की शुक्ल पंचमी को रामबोला का यज्ञोपवीत संस्कार करके उनका नाम तुलसीदास रख दिया।

तुलसीदास की ज्ञान शक्ति से स्वयं नरहर्यानंद जी भी उस समय चकित रह गए जब तुलसीदास ने बिना सिखाए ही गायत्री महामंत्र का शुद्ध उच्चारण किया।

तत्पश्चात नरहर्यानंदजी ने पांचों वैष्णव संस्कार करके तुलसीदास को राममंत्र से दीक्षित किया। फिर तो तुलसीदास ने गुरु की सिखाई प्रत्येक बात को सीख लिया। 

प्रखर ग्रास्य शक्ति के शिष्य पर प्रत्येक गुरु को गर्व होता है। गुरुजी अपने शिष्य को लेकर सोरों पहुंचे और वहा उन्हें रामकथा का सुंदर श्रवण कराया। फिर उन्होंने अपने पारंगत शिष्य को स्वतत्र छोड़कर स्वय काशी प्रस्थान किया।

संवत् 1573 (सन् 1516) ज्येष्ठ मास की शुक्ल त्रयोदशी को तुलसीदास का विवाह हुआ। उनकी पत्नी रत्नावली अत्यत रूपवान और धार्मिक महिला थीं। सुंदर जीवन संगिनी पाकर तुलसीदास अपने लक्ष्य को भूलकर पत्नी के सौंदर्य आकर्षण में फंस गए। 

रत्नावली से क्षण-भर का विछोह भी उन्हें असहनीय था। एक बार रत्नावली अपने पीहर चली गई। तुलसी दास उस समय घर पर नहीं थे। उन्हें जब पता चला कि उनकी पत्नी पीहर चली गई है तो वह भी उसके पीछे ससुराल पहुँच गए। रत्नावली को अपने पति का इस प्रकार पीछे-पीछे आना बड़ा ही लज्जा जनक लगा।

जब तुलसीदास रत्नावली के सामने आए तो वह उन पर बड़ी क्रोधित हुईं। ”तुमने मेरे पीछे-पीछे आकर उचित नहीं किया। एक पुरुष को यह शोभा नहीं देता कि ऐसा अशोभनीय व्यवहार करे। मानव जीवन को मात्र सुख भोग विलास में व्यतीत करना उचित नहीं है।

जैसी प्रीति तुमने चर्म से की है वैसी प्रति धर्म से करो तो उद्धार हो जाए। जैसी इच्छा ‘काम’ की है वैसी ‘राम’ की होती तो जन्म सफल हो जाता। धिक्कार है तुम्हारे पुरुषार्थ को ! रत्नावली ने कहा। तुलसीदास का सिर लज्जा से झुका ही था।

पत्नी के तिरस्कार भरे वचन सुनकर उनके अंदर का पुरुष जाग उठा। अंतर में ऐसी विरक्ति उत्पन्न हुई कि अंतर्पट खुलते गए और ज्ञानचक्षु खुल गए। उसी क्षण भगवान श्रीराम के चरणों में लौ लगा ली और सांसारिक सम्बंधों को त्यागकर काशी चल पड़े।

काशी में भगवान की आज्ञा से वीर हनुमान ने उन्हें भगवान श्रीराम से मिलाने का स्थान चित्रकूट बता दिया । तुलसीदास चित्रकूट आ गए। चित्रकूट में रामघाट पर निवास किया और भिक्षा मांगकर उदरपूर्ति करने लगे। 

एक दिन प्रदक्षिणा करने लगे तो मार्ग में दो सुंदर कुमार सुसज्जित घोड़ों पर सवार मिले। इनका हनुमानजी से साक्षात्कार था। हनुमानजी ने इन्हें बताया कि मार्ग में मिले दोनों राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण थे। 

तुलसीदास को बड़ा पश्चात्ताप हुआ। हनुमानजी ने सात्वना दी कि प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे। संवत् 1607 सन् (1550) मौनी अमावस बुधवार को तुलसीदास घाट पर चंदन घिस रहे थे कि दो सुकुमार बालक उनके सामने आए।

बाबा, थोड़ा-सा चंदन हमें भी दो। बालको ने कहा। वहीं समीप एक वृक्ष पर हनुमान भी तोता रूप में बैठे थे। उन्होंने तुलसीदासजी को सांकेतिक भाषा में बताया कि उनके समक्ष श्री भगवान हैं। तुलसीदासजी उस अद्भुत छवि पर मोहित हो गए। 

भगवान ने अपने हाथों से अपने और तुलसीदास के मस्तक पर चंदन लगाया और फिर अंतर्धान हो गए।

संवत् 1627 (सन् 1507) को तुलसीदास आयोध्या आए। वहा उन्हें अपने अंदर कवित्व का आभास हुआ और वह संस्कृत वहन्-लिखने लगे। परतु वे दिन में जो भी लिखते वह रात्रि में लुप्त हो जाता। एक दिन हनुमानजी से आदेश मिला कि अपनी भाषा में पद लिखें।

तब संवत् 1631 (सन् 1574) में रामनवमी के दिन उन्हीने ‘श्री रामचरितमानस’ की रचना प्रारम्भ कर दी। दो वर्ष सात माह पच्चास दिन में ग्रंथ को उन्होंने पूर्ण किया। 

काशी जाकर उन्होंने भगवान विश्वनाथ के समक्ष अपने स्वलिखित ग्रंथ का पाठ किया। और यह रामचरितमानस हिन्दू और हिन्दुत्व का अटूट जैसे रामबाण ही बन गया। जिस पर भगवान ने अपने हस्ताक्षर करके अपने भक्त को अद्भुत पुरस्कार दिया। 

आज रामचरितमानस प्रत्येक हिन्दू के लिए एक परम धर्म ग्रंथ है। संसार भर के साहित्य में इसका स्थान अग्रणी है। जिस हिन्दू घर रामचरितमानस की प्रति नहीं है वह हिन्दू ही नहीं है।

तुलसीदास ने हिन्दू धर्म को एक अद्भुत पुस्तक भेंट की। फिर सवत् 1680 सन् (1623) को अस्सीघाट पर गंगा किनारे इस महाकवि ने राम नाम कहते हुए अपने श्वास को राम में मिला दिया।

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